Friday, June 11, 2010

खून बेचो या किडनी-धंधा चाहिए. तारकेश्वर गिरी.

चाहे कुछ भी हो, धंधा चाहिए तो चाहिए। चाहे खून बेचो या चाहे किडनी, इस से क्या मतलब । ये शब्द है प्राइवेट बीमा कंपनी में काम करने वाले मैनेजेर साहेब लोगो के। उनके अधीन काम करने वाले लोगो की नीद खुली नहीं की डर सा छा जाता है दीमाग के उपर। की अभी बॉस का फ़ोन ना आ जाये। और ये हकीकत है जब तक ये बेचारे चाय -वाय पीते हैं उसी समय बॉस का नंबर मोबाइल पर धड़कन देने लगता है की अब सुबह ही सुबह बोलू तो क्या बोलू। बॉस पूछता है की आज का धंधा बतावो (धंधा शब्द इन्सुरंस कंपनी में पोलिसी के लिए इस्तेमाल किया जाता है)।
बेचारे सुबह -सुबह किसी तरह से निपट कर के समय से ऑफिस पहुचने की कोशिश करते हैं , थोडा बहुत जाम से निपटते हुए ऑफिस में जैसे ही घुसते हैं , उसी समय बॉस मीटिंग के लिए सबको बुला लेता है। मीटिंग में सीधे धमकी दी जाती है वो भी उन सारे शब्दों के साथ , जो आज से ५० साल पहले जमीदार लोग अपने गुलामो के ऊपर इस्तेमाल करते थे । माँ और बहिन की गाली तो आम है।
गाली के अलावा हमेशा नौकरी से निकाल दिए जाने का खतरा सर पे मंडराता रहता है । इस चक्कर में फर्जी पोलिसी भी डालने से बाज नहीं आते। वेतन जितना भी मिलता है उसका २५-३० % अपने दोस्तों की पोलिसी लेने में ख़त्म कर देते हैं।
कस्टमर की रोज -रोज की गोली से तंग बेचारा करे तो क्या करे। बॉस के सामने किया हुआ प्रोमिस रोज फेल हो जाता है। बेचारा रात को गिरता पड़ता १०-११ बजे घर पहुंचता है तो बीबी की दुत्कार। बछो का होम वर्क। फिर वही कल वाली सुबह।